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    घास की नहीं, बल्कि इस अनाज की रोटी खाई थी महाराणा प्रताप ने

    कहावत है कि महाराणा प्रताप को अकबर से लड़ते हुए घास की रोटी खाकर गुजारा करना पड़ा. कहा तो ये भी जाता है कि महाराणा प्रताप के बेटे अमर सिंह एक दिन घास की रोटी खा रहे थे तभी उस रोटी को एक जंगली बिल्ला ले भागा था. इस घटना से महाराणा प्रताप को काफी कष्ट हुआ था.

    विधि

    कहावत है कि महाराणा प्रताप को अकबर से लड़ते हुए घास की रोटी खाकर गुजारा करना पड़ा. कहा तो ये भी जाता है कि महाराणा प्रताप के बेटे अमर सिंह एक दिन घास की रोटी खा रहे थे तभी उस रोटी को एक जंगली बिल्ला ले भागा था.
    इस घटना से महाराणा प्रताप को काफी कष्ट हुआ था. इस घटना का वर्णन अकबर के कवि पीथल ने भी अपनी रचना पीथल और पाथल में किया था. कवि पीथल ने महाराणा प्रताप को अकबर के सामने आत्मसमर्पण न करने वाली प्रतिज्ञा याद दिलाते हुए यह कविता लिखी थी. आइए जानते हैं क्या है महाराणा प्रताप के घास के रोटी खाने का सच. लेकिन उससे पहले यह कविता पढ़ लीजिए.

    अरे घास री रोटी ही, जद बन बिलावडो ले भाग्यो.
    नान्हों सो अमरयो चीख पड्यो, राणा रो सोयो दुःख जाग्यो.
    हूं लड्यो घणो, हूं सह्यो घणो, मेवाडी मान बचावण नै.
    में पाछ नहीं राखी रण में, बैरया रो खून बहावण नै.

    खैर, बात घास की रोटी की करें तो दरअसल वह रोटी घास की नहीं थी जिसे महाराणा प्रताप खाते थे. दरअसल, वह एक प्रकार का अनाज ही था जो जंगलों में होता था. इसे फिकार कहा जाता है और बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में आज भी होता है.
    इस बारे में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के डिप्टी डायरेक्टर जनरल (एग्रीकल्चरल एजुकेशन) एन.एस. राठौर बताते हैं कि यह वाइल्ड व्हीट है यानी एक तरह का जंगली गेहूं. बुंदेलखंड और और इससे लगे मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे फिकार भी कहा जाता है. पहले इसकी खेती नहीं होती थी, लेकिन अब होने लगी है. जिस तरह से जौ के जूस का प्रयोग दवाई के लिए किया जाता है, ठीक उसी प्रकार से फिकार की घास का जूस भी फायदेमंद है. इसे खाली पेट पिया जाता है.

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    जबकि इंडिया टुडे डॉट इन में छपे एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार पीयूष बबेले ने भी लिखा था कि बुंदेलखंड के घास की रोटी वाले क्षेत्र में दो अनाज काफी चर्चित हैं पहला फिकार और दूसरा समई. यह कोई घास नहीं बल्कि बाजरे जैसा ही अनाज है. इसी की रोटी इस क्षेत्र में खायी जाती रही है. यहां फिकार और समई के अलावा कोदो, कुटकी, रागी, मांडवा भी होता है. एक खास प्रजाति के लोगों का यह जीवन-यापन का हिस्सा भी है.
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    वहीं कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि बुंदेलखंड में फिकार के साथ ही पसई, कुटकी, कोदू, सवा, बथुआ, ग्वार की फली, पमरऊआ, चकुदिया और लठजीरा जैसी चीजें अपने आप उग आती हैं. इसे स्मॉल मीलेट्स कह सकते हैं. वहीं कोदो, कुटकी, रागी, मांडवा का जिक्र झांसी के गजट में भी है. बुंदेलखंड और मध्यप्रदेश के कुछ हिस्सों में इन अनाजों की खेती होती है. फिकार जिसे घास बताया जा रहा है इसकी खेती जून में की जाती है.

    फोटो साभार- सत्याग्रह. स्क्रॉल)

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    सत्याग्रह में छपी एक रिपोर्ट में विनय सुल्तान भी जौ और फिकार का हवाला देते हैं. वे रिपोर्ट करते हैं कि, पहले जब अकाल पड़ता था तो जौ मिलना मुश्किल हो जाता था. तब बुंदेलखंड के लोग फिकार और कुटकी खाकर जिंदा रहते थे. अकाल के गाढ़े सालों में जिंदा बने रहने के लिए यह अनाज इस सूखाग्रस्त क्षेत्र की एक जीवनरक्षण प्रणाली सरीखा है. बुंदेलखंड में एक कहावत है तीन पाख और दो पानी, जे आई कुटकी दौरानी. इसी तरह फिकार की फसल 60 दिन में तैयार हो जाती है. इस अनाज की खास बात है कि आप इसे 10 साल तक भी छांव में रखें तो इसमें घुन नहीं लगेगा. पहले इन अनाजों को मिट्टी के बड़े-बड़े मटकों में बंद करके रखा जाता था. और सूखा पड़ने पर इसे से गुजारा किया जाता था.

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